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अयोध्या धाम

राम आएंगे अयोध्या धाम आएंगे  राम आएंगे तो खुशियां मनाएंगे  फूल माला से मैं घर को सजाऊंगी  रंगोली बना के मैं देहरी सजाऊंगी  दीपमाला बनके खुद ...

गुरुवार, 29 जून 2017

सुहाना सफ़र

बात उन दिनों की है जब मैं एम.बी.बी.एस की पढाई कर रही थी और अपने परिवार से दूर अपने कॉलेज के हॉस्टल में रह रही थी. मेरी ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ पड़ी थी और मैं अपने मम्मी-पापा के पास जा रही थी. मेरा रिजर्वेशन बहुत पहले से था. लेकिन सफ़र से एक दिन पहले मेरी तबियत बिगड़ गई लेकिन मैं अपना टिकेट कैंसिल नही करवा सकती थी क्योकि मेरी सभी रूम पार्टनर जा चुकी थी और मैं अपने हॉस्टल में अकेली थी. अतः मैं रुक भी नही सकती थी वार्डन ने कहा बेटा मुझे भी जाना है. तुम्हे अगर रुकना है तो तुम अपने लोकल गार्डियन के पास चली जाओ. लेकिन मेरा मन तो मम्मी-पापा के पास लटका हुआ था. सो उसी हालत में ट्रेन पकड़ने चल पड़ी. लेकिन मेरा बुखार बढ़ता गया साथ ही मुझे सर में दर्द भी था. मैं काफ़ी बेचैन थी. बगल में बैठे एक व्यक्ति ने डॉक्टर को बुला दिया. लेकिन डॉक्टर ने कहा कि, “अगर इनको दवा और पानी की पट्टियां नही दी गई तो मुश्किल हो जाएगी.” डॉक्टर ने कहा “मैडम आपके साथ कौन है”
“सर, मैं तो अकेली हूँ”
“फिर आप कैसे करोगी.”
मेरे बगल में बैठे व्यक्ति ने कहा, “सर, कोई बात नही. अगर बर्फ मिल जाए”
“जी ज़रूर.”
अगले ही पल अनजान व्यक्ति ने मुझे दवाई दे कर मुझे लेट जाने को कहा और मेरे सर पर पट्टियाँ करने लगा. मुझे जैसे बुखार उतरा मुझे नींद आ गई लेकिन वह व्यक्ति पूरी रात मेरे सर पर पट्टियां रखता रहा और मेरे सिरहाने ही बैठा रहा. जब मेरी सुबह नींद खुली तो मैंने उन्हें वैसे ही बैठे पाया. मैंने पूछा, “आप रात को सोए नही.” उन्होंने कहा, “कोई बात नहीं अब आपकी तबियत ठीक है?”
“जी अच्छा लग रहा है”
“अब थोड़ी ही देर में मेरा स्टेशन आने वाला है. अतः मैंने सोचा आपको बताता जाऊं.”
“तो आप जा रहे है.” मैं बड़ी आत्मियता से बोली तो उन्होंने कहा, “जाना तो पड़ेगा. हमारा-आपका साथ यही तक का था.” उतरते-उतरते मैंने उनका हाथ पकड़ लिया. “अपना नाम तो बताते जाओ मेरे फ़रिश्ते!”

“मैं इतना महान भी नही हूँ.” जाते-जाते उन्होंने मुझे अपना नाम विनीत बताया और वे उतर पड़े फिर कहा “अगर तक़दीर ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे.”

बुधवार, 28 जून 2017

मुश्किल

उन्हें खोना भी मुश्किल
उन्हें पाना भी मुश्किल
जीवन की जंग से लड़ पाना भी मुश्किल
खोखली यादों के
सहारे चलना भी मुश्किल
गीत यादों के गुनगुनाते हैं
अश्क आँखों से छलक जाते हैं
मोती बनकर गालों पर
लुढ़क जाते हैं
नें भीगे हैं हरदम
दिल में एक तरप बाकी हैं
जीना उनके बगैर
यह अपने लिए कहना भी मुश्किल
सोच कर ही डर लगता हैं
काश वो दिन सामने आ जाए
तो उनसे गुज़र कर
निकल पाना भी मुश्किल
खुदा अपनी इबादत
हम पर बनाए रखना
जीवन थोड़ी मुश्किल ही सही
खुशियों की झड़ी लगाए रखना!!

सोमवार, 26 जून 2017

वादियाँ

सुनो पपीहा बोल रहा हैं
कुछ कानों में घोल रहा है
चिड़िया की चह-चह कानों में
गुंजे बारमबार
एक डाल से दूजे पे घूमे फुदक फुदक के
बादल राजा घूम रहे है
मस्त मगन बेहाल
फूलों की भी सुन्दरता तो
कर दे मालामाल
धरती की है छटा  अनोखी
धरती दूल्हन बन बैठी है
हरियाली की चादर पर
रंग-बिरंगे फूल खिले है
सूरज के किरणों ने
धरती का कर दिया श्रगार
रात चांदनी लेकर आती
टिम-टिम करते तारे
अब पेड़ों के बीच चल रही
कितनी ठंडी बयार
हाड़ो को भी तोड़ डालती
ऐसी कापती रात
गर्म हवा तुम यहाँ भी आओ
राहत देदो आज
यह कैसा प्रदेश प्रभु
सब खोज रहे है मुझको
वरना मुझसे दुरी ही रखते है

हर प्रदेश के वासी!!

रविवार, 25 जून 2017

निमंत्रण

भेज रहे है स्नेह निमंत्रण
प्रियवर तुझे बूलाने को
स्वागत को घर-बार सजा है
दावत से बागान सजा है
हे मानस के राज हंस तुम
भूल न जाना आने को

भेज रहे है स्नेह निमंत्रण
      प्रियवर तुझे बुलाने को
      खुशियों के इस गहन बेला में
      आपके आगमन की प्रतीक्षा हमे है
      कब नयन चार होंगे, गले हम मिलेंगे
      यह संजोग अपना सूहना बनेगा

भेज रहे है स्नेह निमंत्रण
प्रियवर तुझे बुलाने को
आओ सब मिल जुलकर के
खुशियां बाटेंगे हम मिलकर के
व्यस्त घड़ी है, व्यस्त है जीवन
थोड़ा सा उल्लास भरे

भेज रहे है स्नेह निमंत्रण
      प्रियवर तुझे बुलाने को
      जीवन के इस बिरह मिलन में

      थोड़ा सा विश्राम करे!

शनिवार, 24 जून 2017

आचरण

कोयला होत न उजला
सौ मन साबून खाए
यह मन निर्मल होए जब
संत संगति को पाए

पूरे जग को रौशनी
दीपक देकर जाए
खुद के तले अंधेरा है
वर्षो बरस बीत है जाए

कोयला होत न उजला
सौ मन साबून खाए
राजनीति के गलीयारो में
सब कुछ काला होए

ज्ञान की गंगा बहाकर
अंधकार तुम दूर करो
वक्त आज वो आ गया है
हर घर में विद्या ज्योति जलाओ

मन के अंधकार को दूर कर
जग को प्रकाश पूंज से भर दो
हर घर में रौशनी हो नई उम्मीद का दीया

हर घर से गुज़रे ये ज्ञान की गंगा!

शुक्रवार, 23 जून 2017

पहाड़ों की व्यथा

पहाड़ो की अपनी ही व्यथा है. अजीब सी उनकी पटकथा है. अकेलापन, सूनापन. ख़ामोशी ही उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा है लेकिन प्रगतिशील समाज ने उन्हें ख़ुशी देने की कोशिश की लेकिन इस कोशिश में वे पूरी तरह कामयाब न हो सके और ख़ुशी देने के चक्कर में दर्द दे दिया. पहाड़ो के सीने को मशीनों के माध्यम से चीर कर उस पे बहुमंजिला ईमारत खड़ा कर अपने पैसे बनाने का एक बेहतरीन उद्योग खड़ा कर लिया. पहाड़ो ने उन्हें अपनी ओर खीचा था अपना अकेलापन बाटने के लिए न कि उन्हें पैसे बनाने की मशीन बनाने के लिए. पहाड़ो के बीच बसी छोटी-छोटी  लकड़ी के रंग बिरंगे घर उनकी शोभा बढ़ाते है. जबकि बड़ी-बड़ी इमारते उनका मुंह चिढाते है.
      साथ ही हर जगह लोगो के द्वारा फैलाए गए कचड़ो के सड़ने से जो बदबू निकलती है. उससे जो प्रदुषण फैलता है. वह पहाड़ के लिए बड़ा खतरा है. जिसका जीता जागता उदाहरण उत्तराखंड में केदारनाथ की घटना है, जिससे पूरा देश वाकिफ है. इस घटना को कई वर्ष बीत जाने के बावजूद हम उसे भुला नही पाएं है.
      लेकिन उस घटना से हमने कुछ सबक सिखा क्या? शायद हमारा जवाब नकारात्मक ही होगा. क्योकि हमे तो बस पैसा कमाना और अपनी सुख-सुविधा को बढ़ाने कि होड़ में सबसे आगे पहुचने कि जिद है. जो हमे हमारी सभ्यता, संस्कृति सबको भुला देने के लिए हमे मजबूर कर रही है.

      पहाड़ो की खूबसूरती और उनकी पवित्रता का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते है कि वहां बारिश के लिए इंतजार नही करना पड़ता, दिन में एक दो बार बारिश कि बुँदे टपक ही जाती है. वहां न तो आपको ठन्डे पानी के लिए फ्रिज की ज़रूरत है, न ही पंखे और एयर-कंडीशन की ज़रूरत है. यह नज़ारा देखकर हमे कम से कम इतना तो अवश्य सिखना चाहिए कि अगर हम प्रकृति को सिर्फ सुकून और सफाई देंगे तो बदले में वो हमे कृत्रिम जीवन से प्राकृतिक जीवन की और ले जाने में कोई कसर नही छोड़ती इसका अदभुत  नमूना आप नैनीताल की पहाड़ियो में जाकर महसूस कर सकते है और शायद यह सोचने के लिए मजबूर हो जाए कि आ अब लौट चले. बहुत उड़ान भर ली अब और नही. अपनी धरती तो पहले से ही स्वर्ग है फिर हम किस स्वर्ग को खोजने चले है. बेकार ही हम मृगमरीचिका में पड़े है. सारी खुशिया अपने आंगन में तो पहले से ही मौजूद है. है भारत माता तुम धन्य हो जो तुमने इन सभी मौसमो से हमें नवाज़ा. यहाँ का हर मौसम अपने आप में अनोखा है. अतुलनिए है अविश्मरनीय हैं. जिसका वर्णन सिर्फ कुछ शब्दों में नहीं किया जा सकता.

गुरुवार, 22 जून 2017

मायावी दुल्हन (भाग 1)

आज हमारे गावं में एक शादी थी. सब उसी बारात से लौट कर आयें हैं. हर किसी के जुबान पे एक ही बात हैं. लड़की बड़ी सुन्दर मिली हैं. क्या नसीब लिखवा के लाया हैं लोकेश. इतनी सुन्दर पत्नी और इतना अच्छा ससुराल हर किसी को नसीब नहीं होता. लेकिन किसे पता था. यही नसीब अगले ही दिन बदनसीबी में बदलने वाला हैं. खैर पूरी रात हम लोग यही चर्चा-परिचर्चा करते रहे कि लड़का बिल्कुल साधारण परिवार से था फिर भी इतनी सुन्दर बहू और इतना सारा उपहार पुरे गावं में चर्चा का विषय थी लड़की पढ़ी लिखी भी हैं. फटाफट अंग्रेजी बोलती हैं. सब लोग यही बात कर रहे हैं कि उस परिवार को इस लड़के में ऐसा क्या दिखा कि अपनी परी जैसी सुन्दर लड़की का विवाह इसके साथ कर दिया. खैर इस चर्चा को यही विराम देते हुए मैं सोने चला गया.
लेकिन जब सुबह मेरी नींद खुली तो गावं का पूरा नजारा ही बदला हुआ था. सब लोग बदहवास से लोकेश के घर की ओर भाग रहे थे. मेरी माँ भी मेरी चाय रखते हुए. बाहर निकल गयी और साथ में कहती गयी जल्दी आ जाना लोकेश के घर मैं जा रही हूँ बेटा देर मत करना. मैं माँ से पूछना चाहता था कि लोकेश के घर ऐसा क्या हैं लेकिन माँ तबतक आँखों से ओझल हो गयी. मैं चाय पीकर कपड़े पहन कर लोकेश के घर की ओर चल दिया. जिसे देखो वही लोकेश के घर की ओर दौड़ रहा था. मैंने एक दो लोगो से पूछना भी चाहा लेकिन किसी ने कोई जवाब नहीं दिया खुद ही देख लो. मैं अजीब कशमकश में था. कदम अपने आप बढे जा रहे थे.
खैर मैं भी लोकेश के घर तक पहुँच गया लेकिन वहां तो भारी भीड़ जमा थी लग रहा था पूरा गावं वहीँ उमर गया हैं. जब मैं भीड़ के नजदीक पहुंचा तो मेरा भी कलेजा मुंह को आ गया. जमीन पर लोकेश का खून से लतपथ मृत शरीर पड़ा था. जिस लोकेश को हम लोग उसके घर रात को हँसता मुस्कुराता छोड़ गए थे. वो इस तरह लाचार पड़ा हैं देख कर यकीन नहीं हो रहा था. पर हकीकत यही थी लोकेश हम सब को छोड़ कर बहुत दूर जा चुका था और फिर कभी हमसे नहीं मिलने वाला था. यह सब सोच कर मेरी भी आंखे डबडबा गयी. उसके परिवार वालों का रो-रोकर बुरा हाल था और हो भी क्यों न अपना जबान बेटा खोया था उन्होंने जिसके घर में कल तक ख़ुशी के गीत गाए जा रहे थे आज मातम पसड़ गया हैं. मैंने जानना चाहा कि आखिर ये सब हुआ कैसे तो भीड़ से किसी बुजुर्ग की आवाज आई कि उसी कलमुही की वजह से सब हुआ हैं. रात को आई और आज ही अपना मुंह काला करके किसी के साथ भाग गई. "लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है ताई?" मैंने भी उसमे जोड़ा, "अगर उसे भागना ही था तो उसने लोकेश को मारा क्यों?" इस पर सबका माथा ठनका तेरी बात तो सही है. फिर ऐसा क्या है जो हमलोग समझ नहीं पा रहे हैं. इस बात का जवाब तो हमें लड़की के घर जाकर ही लगेगा. सब लोगो की सहमती बनी फिर कुछ लोग लड़की वालों के घर असलियत का पता लगाने के लिए निकल पड़े. शाम तक वो लोग लौट आयें. लेकिन उनके लौटने पर तो एक और धमाका हुआ कि लड़की के घर जहाँ हमलोग कल बारात लेकर गए थे वहां तो कुछ है ही नही. बंजर पड़ी जमीन हैं. हमने गावं वालों को समझाने की भी कोशिश की लेकिन उन्होंने हमारी एक नहीं सुनी.
यह सब सून कर गावं वालों का बुरा हाल था किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ये कैसी मुसीबत आन पड़ी है. सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि लोकेश के क्रिया कर्म के बाद इस पर अभियान चलाना हैं. हम लोगों के बीच आसपास के दस गावों की पंचायत बुलाने की बात तय हुई सोलहवे दिन पंचायत बुलाई गई और उसमे तय किया गया कि हमारे किसी भी गावं में लड़के-लड़की की शादी करेगा तो पहले पंचायत को खबर करेगा.
कुछ महीनो के इंतजार के बाद सरपंच साहब के घर में उनके बेटे की शादी का मौका आया लेकिन सरपंच साहब ने हम लोगों को याद नहीं किया और हम लोगों में इतनी हिम्मत नहीं थी कि सरपंच साहब के घर होने वाले किसी ख़ुशी में भंग डाल सके. शादी की तयारी जोरो पर थी. पर गावं में लोगों का दिल बैठा जा रहा था किसी अनहोनी की आशंका में.
शादी का दिन आ गया बड़े धूमधाम से शादी हुई. दुल्हन भी घर आ गई. गावं वालों ने चैन की साँस ली. अगले दिन प्रीति-भोज का आयोजन था. सबलोग दुल्हन की ही तारीफ कर रहे थे लेकिन सब के दिल में कहीं न कहीं यह डर भी था कि लोकेश वाली घटना फिर से न हो जाए. खैर तीसरे दीन ही जमींदार साहब का बेटा हनीमून पर चला गया. हनीमून मनाने अतुल गया था पर खुश पूरा गावं था कि चलो सब कुछ अछी तरह से निपट गया.
पर गावं वालों को कहाँ पता था कि उनकी ख़ुशी बस दो चार दिनों की ही हैं. मैं रात को सो रहा था. अचानक मेरी नींद खुली मैं पूरी तरह पसीने से लथपथ था. समझ नहीं आ रहा था कि अभी-अभी जो सपना मैंने देखा वो सच हो गया तो गावं में मुझे कोई रहने नहीं देगा. मैं किसी से कहूँ भी तो कैसे. मैंने माँ को जगाया. माँ मेरी आवाज सूनकर उठ बैठी. बोली क्या हुआ नींद नहीं आ रही है या अपने बेटे की शादी के सपने देख रहे हो. मैंने कहा माँ तुम भी बस एक ही रट लेकर बैठी रहती हो. और क्या करूँ तुम और तुम्हारी पत्नी को तो बेटे के शादी की बिल्कुल चिंता ही नहीं है. मैं उसकी दादी हूँ. मुझे अपने राजकुमार को दूल्हा बनते देखना हैं न लेकिन माँ साथ ही मेरे चेहरे के बदलते भाव को भी देख रही थी जिस पर ख़ुशी बिल्कुल नहीं थी. माँ ने फिर पूछा बेटा बता क्या बात है तू क्यों चिंतित है. "माँ मेरी चिंता का कारण मेरा अपना नहीं है. माँ मैंने सपने में देखा कि अतुल का प्लेन क्रैश कर गया हैं और उसमे उसकी मौत हो गई है. बेटा शुभ-शुभ बोल अभी-अभी इस मुश्किल से गुजरे हैं. अब ऐसी बात मत कर. माँ मैं भी इसी बात से डर रहा हूं. माँ ने सांत्वना दिया कि घबराने की कोई बात नहीं है. जब हम डरे हुए होते हैं तो ऐसे ही ख्याल आते हैं. सो जाओ.
जब मैं सुबह उठा माँ ने मेरी कान में आकर कहा, "तूने जो कहा था वो सच निकला" "क्या?" "हाँ, बेटा जमींदार साहब का रो-रोकर बुरा हाल है. तू ही उन्हें कुछ सांत्वना दे सकता है." "माँ क्या सांत्वना दूँ. जिसका जवान बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा. उसे ढाढ़स बंधाना आसान नहीं" "बेटा मैं जानती हूं लेकिन सब्र तो रखना ही पड़ेगा. हम जानेवाले के साथ तो नही जा सकते." मैं बड़ी हिम्मत जुटा कर जमींदार साहब के पास पंहुचा. मुझे देख कर वो फुट-फुट कर रोने लगे. मैं भी अपने आप को रोक न सका.

आगे जारी.........................

बुधवार, 21 जून 2017

नैनीताल

पहाड़ों का राजा नैनीताल
लंबे-लंबे पेड़, झाड़ियाँ बड़ी-बड़ी
हर तरफ धरती हरी चादरों से ढकी
चिड़ियों का चहचहाना
बंदरों का उछलना और किंकियाना
घोड़ों की टाप की आवाज़
पानी की धार का पहाड़ियों से टकराना
पहाड़ों के बीच बने छोटे-छोटे गेस्ट हाउस
शांत पहाड़ी के वातावरण में
गाड़ियों की गरगराहट का
रुक-रुक कर आना
सुबह धुप का खिलना
चाँद घंटों में ही बादलों से घिर जाना
फिर टिप-टिप गिरती बारिश की बुँदे
कानों को सुकून दे जाती है
आँखों में वादियों की ख़ूबसूरती को
समेटे हुए हम चल पड़े
इस यात्रा के यादों को
शब्दों में समेटा हैं
नैनीताल की ख़ूबसूरती को
आप तक पहुँचाने की

एक छोटी सी कोशिश हैं हमारी!!

मंगलवार, 20 जून 2017

बारिश की बुँदे

मोती सी बारिश की बुँदे गिरी हैं
दिल चाहता हैं समेटूं इसे मैं
बाहों में भर लूँ भिगों लूँ मैं खुद को
ये बारिश की बुँदे गज़ब ढा रही हैं
ये बारिश की खित-पिट
ये मौसम की चिक-चिक
लगता हैं जैसे धरा गा रही हैं
वो धुन कोई सुन्दर सुना जो रही हैं
हैं मौसम मनोरम सुहाना सफ़र हैं
कई मायनों में गज़ब का ये दिन हैं
सुबह हो रही हैं सभी खुश हुए हैं
अब आ गया बारिशों का महीना
हरी ओढनी से धरा ढक सकेगी

गज़ब ढा रहा आसमां नीला-नीला!!

सोमवार, 19 जून 2017

रिश्वत

रिश्वत एक ऐसा शब्द हैं जिसे सुनकर कुछ लोगों के चेहरे खिल जाते हैं. पर कुछ लोगों की हस्ती इन्ही वजह से मिट भी जाती हैं. इसी पर आधारित ये कथा एक ऐसे अधिकारी की हैं, जिसने कितनी ज़िन्दगी को बर्बाद करने का श्रेय लेकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करता हैं.
गोपाल दास, एक ऐसे चरित्र का नाम हैं जो सचिवालय में बाबू के पद पर कार्यरत हैं. उनके पाँचों ऊँगली मानों घी में हो. उनकी पूरी फैमिली बड़ी खुश रहती हैं इसलिए नहीं कि उनके घर में सब सरकारी नौकरी में हैं बल्कि इसलिए कि उनका बेटा बड़ा बाबू बन गया हैं और अब उनकी चांदी ही चांदी हैं. गोपाल दास जी भी अपनी तारीफ़ सुनकर मंद-मंद मुस्काते रहते हैं. मन ही मन वो सोचते हैं, “वाह री माया तेरी भी क्या बात हैं कुछ दिन तक तो मुझे घर में कोई पूछता भी नहीं था क्योंकि मेरी नौकरी सबसे छोटी थी”. मैं महज़ क्लर्क के पोस्ट तक पहुंच पाया था पर माया की कैसी महिमा हैं कि रातों-रात किसी की इज्ज़त में चार चाँद लग जाता हैं. चाहे वह माया रिश्वत में ही क्यों न मिली हो.
फिर क्या था गोपाल दास जी भी रूपए बनाने के नीत-नए उपाए ढूँढने में लग जाते हैं. हर रोज़ उनके पास बड़ी संख्या में गरीब और किसान अपने पेपर को आगे बढाने की बात करने आते और गोपाल दास जी उनसे बेधड़क अपनी बक्शीस की बात समझा देते हैं. यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहता सचिवालय में सबको पता होता हैं जो काम कोई नहीं निकाल पाता अधिकारियों से उसे गोपाल दास जी चुटकियों में रिश्वत और अपने मिलनसार व्यवहार की वजह से हल कर देते थे.
लेकिन बदलाव तो प्रकृति का नियम हैं. रात आई हैं तो आगे दिन का आना तय हैं और इसी क्रम में निजाम  बदलते ही सचिवालय की आवो हवा भी बदल जाती हैं. हर तरफ मुस्तैदी, ईमानदारी, साफ़-सफाई की बात होने लगती हैं लेकिन हर समय खिले-खिले रहने वाले हमारे गोपाल दास जी का चेहरा अब हमेशा लटका रहता हैं. कपड़े और जूतों में भी अब वो चमक नहीं रही. दिन भर पसीना पोछते रहते हैं. एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया, “क्या बात हैं गोपाल दास जी? बड़े परेशान दीखते हो, कोई ख़ास बात?”. बेचारेआत्मीयता पा फफक कर रो पड़े, “क्या बताऊँ तुम्हे मोहिनी तुम बड़ी सुखी हो तुम्हारे बच्चे, तुम्हारा पति, तुम्हारी कितनी परवाह करते हैं. दिन में कई-कई बार तुम्हारा हाल-चाल जानने के लिए फ़ोन करते हैं, देर हो जाए तो पति तुम्हे लेने दफ्तर तक पहुंच जाते हैं. जबकि एक मैं हूं अगर दफ्तर से घर न पहुंचू तब भी नहीं कोई पूछता कि आज कहां रह गए. यहाँ तक की पत्नी भी सीधे मुंह बात नहीं करती”. मैंने पूछा, “क्यों सब तो आपको बड़ा आदर करते थे. आपका बेटा आपको रोज़ दफ्तर छोड़ जाता था?”
तब मेरे पौकेट में पैसा होता था अब मैं खाली हाथ हूं. सैलरी मिलती हैं तो वो पत्नी उसी दिन पॉकेट से निकाल लेती हैं. पूरे महीने मैं पैदल ही घर से दफ्तर पहुंचता हूं”.
गोपाल दास जी बुड़ा  मत मानना मैंने आपको पहले भी समझाया था गरीबो की आह मत लो पर आपने नहीं मानी आज अपने बच्चे बेगानों की तरह पेश आ रहे हैं. क्या फाएदा हुआ उन पैसों का? मैं तो आज भी आपसे निवेदन करती हूं कि आज से ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लो कि रिश्वत के खिलाफ़ आज के युवा पीढ़ी को आप जागरूक करेंगे. ऐसा करके देखिये आपको कितना सुकून मिलेगा.

मैं काफी देर तक बैठी सोचती रही सच हमारे बुजुर्गों ने सही ही कहा हैं कि बुराई का अंत बुरा ही होता हैं.

रविवार, 18 जून 2017

जन्मदिन

जन्मदिन तेरा आज आया
ढेरों सपने तेरे संग लाया
मुझे याद वर्षों दिलाया
तेरा मुस्कुराना कभी रूठ जाना
गले से लगाकर हमें भी हँसाना
तेरा मुस्कुराना मेरे संग गाना
माँ के कदम से कदम यूँ मिलाना
कभी रोते-रोते मुझे भी रुलाना

जन्मदिन तेरा आज आया
ये चौदह बरस, चौदह दिन में जो बांटू
तेरी हर ख़ुशी को अलग से जो छाँटू
तेरा रोना हँसना, तेरा रूठना भी
तेरी हरकतों पे ये बारीक नज़र से
तुम्हे देखना अच्छा लगता हैं मुझको

जन्मदिन तेरा आज आया
जब रात को चैन से सो तू जाए
तस्सली से मुझको तभी नींद आए
जब तू बीमार हो जाती तो
मेरी हफ़्तों की नींद उड़ जाती तब
वो वक्त बीत कर अब ज़माना बना
बिटिया रानी बड़ी सामने हैं खड़ी
आए जन्मदिन ख़ुशी से मानाओ

माँ के नयन खुशियों से ही भिगाओं!!

शनिवार, 17 जून 2017

मेरी रचना

हैं सरल मधुर मेरी रचना
कहना-सुनना सब को लिखना
सरल शब्द भाषा अपना
हैं सरिता सा अपना सपना
कुछ कहू सुनु कुछ सीख सकूँ
जीवन पर्यंत लिखते रहना
कुछ रुदन-क्रंदन आंसू का बहना
कुछ क्रूड मज़ाक किया जग ने
हर ओर ख़ुशी की वर्षा हो
ऐसा प्रयास किया हर दम
सरल सुगम भाषा अपना
कह डाला मन हल्का करके
निःशब्द हुए सब लिख करके
शब्दों के बाण चलाने से
नहीं चूंके शब्द कभी मेरे
जीवन गौरव गाथा बन कर
इतिहास में शामिल होता हैं
हैं रंगमंच जीवन अपना
ढेरों रंगीन नजारों से
जीवन परिदृश्य भरा अपना
रिश्तों के मोल समझने को
कितने रिश्ते कुर्बान किए
अपनों की खातिर रोकर के
नैनों की नीर से शब्द गढ़े
मन के भावों को लिख करके
शब्दों का रूप दिया हमने
जीवन की कथा हमेशा ही
निर्भयता से ही लिखा हमने
शोर बहुत था बाहर पर
मन शांत हमेशा रखा हैं
अंदर अंगारे अपमानों के
पर मुस्कान थी चेहरे पे
हर बार जिसे अपना समझा
उसने ठोकर जोड़ो की दी
फिर कवि बना डाला मुझको
अब कलम से ही यारी कर ली
रिश्ते-नाते सब जोड़ लिया
लेखन को ही अर्पण कर दी
दिल की हर बात अहाते से
हैं सरल मधुर मेरी रचना

तुम्हें पढ़कर के कुछ हैं कहना!!

शुक्रवार, 16 जून 2017

चुड़ीवाली

चूड़ी लेलो चूड़ी लेलो
लेलो रंग बिरंगी
सदा सुहागन रहने वाली
वो संग सहेली मेरी

चूड़ी लेलो चूड़ी लेलो
मैं तेरे खातिर लेकर के
ढेरो चूड़ियां लाई
सजो सजन के खातिर तुम तो
अपनी सूध कहाँ हैं

चूड़ी लेलो चूड़ी लेलो
नैन तेरे कजरारे
चूड़ी खन-खन बाजे
लहंगा हैं रंगीन तुम्हारा
सबके दिल को भाए

चूड़ी लेलो चूड़ी लेलो
तेरी सैंडल गोल्डन-गोल्डन
गोरे-गोरे पैरों में
लगी आलता भाए
नई आलता लेकर आई

इसको भी अजमाओं!

गुरुवार, 15 जून 2017

बनारस

नदी आइना हैं नदी का किनारा
ये बहता हुआ जल हैं जीवन हमारा
इसे स्वच्छ रखना हैं धर्म हमारा
हमें पावन नगरी का दर्शन हैं करना
हैं गंगा किनारे ये रमणीक शहर
नगरी बनारस मुझे भा गया हैं
ये गंगा की लहरें ये बलखाती नाँव
आरती शाम की दीपकों का नज़ारा
भरी भीड़ में आस्था का नज़ारा
वो ठहरी हुई शाम की रागनी भी
जैसे गंगा की लहरे ठहर सी गई हो
सभी आरती में मगन हो रहे हैं!

गली तंग इतनी की हम खो गए हैं
मगर घुमने में मजा आ रहा हैं
था नया वो शहर लोग सब अजनबी थे
मगर गर्मजोशी से सब मिल रहे थे
नजारा अजब था बड़ा उस शहर का
हर तरफ भीड़ थी पर सुकू चैन भि था
गंगा कि पवन ख़ुशी दिख रही थी
जमी आसमा मुस्कुराने लगे थे
शहर सो गया था पर हम जग रहे थे
नदी की लहर शान से चल रही थी
वो तनहइयो को सुना कुछ रही थी

वजह गुनगुनाने की हमको मिली थी!!