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अयोध्या धाम

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रविवार, 4 जून 2017

प्रिय

वो तेरा बहाना
हमें साथ लाना
गली के ही  नुक्कड़ पे
भेल-पूरी खिलाना
कभी हाथों में हाथ
यूँ डाल जाना
मैं जब रूठ जाऊं
तो हमको मनाना
हमेशा मेरे पास
यूँ लेट आना
हमेशा नया हो
तुम्हारा बहाना
हमारी हंसी को
जो तुम यूँ निहारो
कि जैसे कली खिल गयी बाग़ में हो
वो गुजरा ज़माना
था कितना सुहाना
खुली आसमानों में
यूँ दौड़ जाना
गली दर गली
बेखटक घूम आना
सिकन न कमी
आलासों का ठिकाना
चाँद तारे तले
सब जहां भूल जाना
निगाहों में रातों को
यूँ काट जाना
ज़मीं पर कही न
था अपना ठिकाना
मगर दिल में
महलों का ही सिलसिला था
वो गुज़रे ज़माने
वो बीते फ़साने
बने अब नदी के
हम दोनों किनारे
अब बिच में तो
नदी बह रही हैं
रहा यादों का ही
सहारा हमें भी
कभी जो मिलो तो
यूँ पहचान लेना
कि वर्षों से राहों में
पलके बिछा कर
मेरे आगमन का था
एहसास तुमको
मिलूं न मिलूं पर
ये दिल चाहता हैं
ये अपना फ़साना
सभी को सुनाना
था कितना सुहाना
ये सबको बताना!

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