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बुधवार, 27 दिसंबर 2017

ठिठुरता हुआ आम आदमी

दिसंबर की सर्द  रात ऐसी
कि इंसान बर्फ का सीला बन जाए
पर पेट की भूख ऐसी
कि घर से निकलना ही पड़ेगा

ज़िन्दगी में कुछ बेहतर करना हैं
इस ललक ने इतना मजबूर कर दिया
चाँद दूर हैं बहुत फिर भी
इसे अपनी मुट्ठी में भरना है मुझे

ठोकर खाकर भी दौड़ना हैं हमें
गिर कर भी
मंज़िल की ओर कदम बढ़ाना  है हमें
मुमकिन है
कुछ आगे निकल ही जाएंगे

ये सर्द रात इतनी गहरी हैं
कि अपनी पदचाप भी
दिल को डरा रही है
पर हौसला हममें भी कम नहीं

ज़िन्दगी बार-बार हमको रुला रही
हर रिश्ता अग्नि परीक्षा
हमसे ही मांगता है
पर हम हैं कि
इस रात की भाँती
दिल थाम कर बैठे हैं
कुछ ठान कर बैठे हैं
जीवन के दर्द को पहचान कर बैठे हैं!!

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