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सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

साँझ ढले

जब साँझ के प्रहार में कुछ याद आ रहा था
वो याद धुंधला सा मुझको बता रहा था
था घर कोई हमारा मुझको दिखा रहा था 
अपनों कि याद जिसमे धुंधली सी हो गई थी 
तन्हा खड़ी अकेली मैं मौन हो चली थी 
किससे लडूं मैं किसको अनदेखा कर चलूँ 
कहने को सब है अपने  बेगानों की झलक में 
उलझन के बीच मेरी ख़ामोशी कह रही है 
थे तब भी तुम अकेले हो आज भी अकेले 
है फर्क सिर्फ इतना तब भीड़ में खड़े थे 
अब तन्हा हो चले हो . 

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