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मंगलवार, 28 मई 2019

सफर ज़िन्दगी का

भटकता हूँ दर-दर कहाँ अपना घर है
जहां चैन से रात हमने गुज़ारी
सिपाही समर में उतर के चला हूँ
जहाँ हम गए हो वही के चले है
कहाँ से चले अब कहाँ आ गए है
दुनिया के हर रंग में हम ढले है
हो तप्ती सी गर्मी या बर्फीली चादर
चले बेधड़क हम समर में उतर कर

ज़िन्दगी भोर का उगता हुआ सूरज है
बचपन सुखद आश्चर्य का संगम है
जवानी दोपहरी की तपती हुईं रेत तो
बुढ़ापा शाम का वो छाँव है
जो दुखता भी है और
ज़िन्दगी की खट्टी-मीठी यादों
में रमता भी है

हो के  मायूस ना  यु शाम की तरह
ढलते रहिये
ज़िन्दगी एक भोर है सूरज की तरह
निकलते रहिये
ठहरोगे एक पाव पर तो
थक जाओगे
धीरे-धीरे ही मगर राह पर
चलते रहिये
ये सफर खट्टे-मीठे अनुभवों
का सफर है
बस इस राह पर मुस्कुरा कर
आगे बढ़ते रहिये।

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