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प्रियतम

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शुक्रवार, 18 जून 2021

बदलते दौर कि आपबीती

जिंदगी से जिंदगी के फासले बढ़ते गए
हर कोई बस मौन साधे धुन में अपने चल दिया

जिंदगी कि लालसा हर कोई जब है पालता 
फिर किसी कि जिंदगी में दर्द क्यों है मांगता 

जब तक ख़ुशी के आईने में खुद को अकेला मांगोगे 
मिलेंगी तन्हाईया ख़ुशी कभी ना पाओगे 

पोंछते हम रह गए गैरों के बहते नीर को 
अपनों ने जमकर रुलाया खुद हमारी आंख को 

सबको अपना मानकर बढ़ते रहे हम राह में 
रह गए अंजान हरदम चल रही खामोशिओं से 

जब भी तोड़ा मौन आंखों से अगन सी झांकती 
अश्रुधारा  भी नयन से साधती संवाद देखो 

सब खड़े हैं एक लय हो गैर या अपना कोई 
इस समर में मौन साधे रह गया वह धीर कोई 

जिंदगी को जिंदगी से जोड़कर जिसने जिया 
इस समर में वीर उससा है नहीं कोई और .  

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