बर्फ की परतें भी पानी बन पिघलने लगी है
जीवन रेत बन मुट्ठियों से निकलने लगा है
खुशियां आसमान में बादल सा खोने लगी है
चाँदनी रात भी अब कुछ-कुछ डराने लगी है
दिन के उजाले में भी अँधेरा नज़र आने लगा है
शादी के मंडप में भी सूनापन छाने लगा है
दावत पर भी भी डर का ही साया है
आजकल बचपन भी कितना खामोश रहने लगा है
बागों में खेलते बच्चे कैदियों सा खिड़की से झांकते नज़र आने लगे हैं
हर तरफ़ खौफ़ की आहट है
दिल में मायूसी और नजरों में घबराहट है
खुद कि परछाई भी खुद को डराने लगी है
जाने कब सवेरा आएगा
दिन को खिलखिलाती धुप और
रातों को चाँदनी सुकून देकर जाएगी.
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 13 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयशोदा जी आपका बहुत-बहुत आभार. मैं जरूर आउंगी.
जवाब देंहटाएंयथार्थ सृजन।
जवाब देंहटाएंआशा का दामन न छोड़े भोर को होने से रोके ऐसी कोई रात नहीं होती।
सस्नेह। कोई भी
आपका बहुत-बहुत आभार
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