सर से पाँव तक
जिम्मेदारी के बोझ तले
दबा हुआ अज का आदमी
हंसना-बोलना और गुनगुनाना
भी भूल बैठा हैं
अपने-पराये का फर्क भी
कहाँ याद रहता हैं
पहले तो लोग
पुराने ज़माने को याद करते थे
अब तो अपने ज़माने में ही
गुम हो गया हैं आदमी
कब सुबह होती हैं
और कब दिन ढल जाता हैं
इस सब से बेखबर वह
अपने में ही गुम रहता हैं
आज का आदमी
मशीन से तो जंग लड़ लेता हैं
पर उसे इंसान का डर
अन्दर ही अन्दर खा जाता हैं
आज का आदमी
जीवन को भरपूर जीना चाहता हैं
पर उसकी ख़ुशी
इंसान के साथ जीने में नहीं
वह मशीनों के इर्द-गिर्द
अपनी दुनिया बनाता हैं
लेकिन जब एक दिन
बचपन और जवानी
दोनों पीछे छुट जाते हैं
तब जा कर अपनों की याद आती हैं
अब इन बातों का क्या फायदा
ज़िन्दगी निकल चूँकि तनहाइयों में
आज हर चीज़ पाकर भी खाली हाथ हूँ
काश पहले समझ जाता
हमें मशीनों की कम
परिवार की ज्यादा ज़रुरत हैं
अपने तो वो होते हैं
जो हमारी भावनाओं को समझ पाते हैं
ये दुखद हैं कि
हमने जिसे अपने लिए बनाया
हम उसी मशीन के गुलाम खुद बन गए.
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