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बुधवार, 8 नवंबर 2017

उलझन

मन उलझा उलझन में ऐसे
सुलझ न पाया रे
जीवन के दिन बीत रहे यूँ
जैसे भागे रेल

जीवन आधा बीत गया हैं
बचा-खुचा भी बीत रहा है
पर उलझन सुलझाए न सुलझी
राह हमारी कौन

घर में घर वालों के ताने
बाहर दिल को तोड़ रहा हैं
दिखावे की शोर
मन उलझा उलझन में ऐसे
सुलझ न पाया रे

जीवन के बदली में पानी
हो गया इतना कम
आँखों से आंसूं बन करके
बह नहीं पाते अब
मन उलझा उलझन में ऐसे
सुलझ न पाया रे

घोड़ विपत्ति की चादर ने
ओढ़ लिया हैं सबको
इंसानों के मन में नफरत
घोल रहा हैं पैसा
मन उलझा उलझन में ऐसे
सुलझ न पाया रे

पैसों के ताकत के आगे
नतमस्तक हैं रिश्ता
रिश्तों का अब मोल नहीं हैं
पैसे का कोई तोड़ नहीं हैं
जीवन पर कोई जोड़ नहीं हैं
मन उलझा उलझन में ऐसे
सुलझ न पाया रे

उलझन फिर भी आज वाही हैं
कौन हैं सच्चा कौन हैं झूठा
जुदा -जुदा सब रहते हैं अब
मेल मिलाप दिखावा
प्रेम की चादर ओढ़ के देखो
बैर पुराना साधे
मन उलझा उलझन में ऐसे
सुलझ न पाया रे

अजब-गजब इस दुनिया में
सब उलझे अपनी उलझन में
भूल भुलैया बना के छोड़ा
जीवन की सुन्दरता को
मन उलझा उलझन में ऐसे
सुलझ न पाया रे!!!

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