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मंगलवार, 14 नवंबर 2017

धरा की पुकार

भारत माता नाम हमारा
माँ कहके तुमने हैं पुकारा
सौ वर्षों से मैं गुलाम थी
मेरी खातिर प्राण गवाया
अपनी बली चढ़ाया हँस के
अपनी माँ को खूब रुलाया
पर धरती का क़र्ज़ चुकाया

फिर ऐसी क्या मजबूरी थी
जिसकी सिंहासन से प्रीति थी
उसी को तुमने राजा माना
पल भर क्यों भूल गए
वीरों की कुर्बानी को
बँटवारा कर डाला मेरा

मैं रोती बिलखती रही
कभी अपने वीर बच्चों के शोक में
तो कभी उन गद्दारों के करम पर
जिसने मेरी संतान हो कर भी
गैरों की हाँ में हाँ मिलाई
और मेरी पवित्रता में
जाति और मज़हब का ज़हर घोल दिया
मुझे अपनों ने ही
चन्द लम्हों में तोड़ दिया
जातिवाद के कहर को इतनी हवा दी
कि बरसों पुराना प्यार
पल भर में बिखर गया

मेरे वीर सपूतों जागों
अब और नहीं
अपने अंतर्मन में झाँकों
अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति को पहचानों
हम कमज़ोर नहीं
हम भटक गए हैं
हमारी गति यह नहीं
जिस पर हम अटक गए हैं
सदियों पुरानी हमारी सभ्यता को
यूँ न बिखर जाने दो
तुम सब मिलकर रहो
अपनी ताकत को पहचानों

मेरे वीर सपूतों
मेरे लिए इससे बड़ी कोई कुर्बानी नहीं
अब तो जान देने की नहीं
हौसलों से नया भारत बनाने की तैयारी हैं

बस साथ दे दो मेरा
वो दिन दूर नहीं जब
धरती से आसमान तक
तिरंगा लहराएगा मेरा.

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