यह ब्लॉग खोजें

Translate

विशिष्ट पोस्ट

पहाड़

हमको बुलाये ए हरियाली  ए पहाड़ के आँचल  हमको छूकर जाये, बार-बार ये बादल  कभी दूर तो कभी पास ए  करते रहे ठिठोली  भोर - सांझ ये आते जाते  होठों...

सोमवार, 3 सितंबर 2018

तुम बिन जीना सिख रही हूँ

तुम बिन जीना सिख रही हूँ
गम को पीना सिख रही हूँ
जब मैं निकलू घर से बाहर
नभ में तुमको ढूंढ रही हूँ
अब तो तुम को पाना मुश्किल
पाकर खोना सिख रही हूँ

तुम बिन जीना सिख रही हूँ 
गम को पीना सिख रही हूँ
तन्हाई के बादल भी अब
मुझसे बाते करते है
मेरी पलके ढूंढे तुमको
भीड़ भरे चौराहों पर

चिड़ियों के कलरव के संग-संग
मैं तो गाना सिख गयी हूँ
दिन चढ़ते ही दुनिया के संग
मैं अब लड़ना सिख गयी हूँ
तुम बिन जीना सिख रही हूँ 
गम को पीना सिख रही हूँ

भूल परायो-अपनों का गम
जीवन जीना सिख गयी हूँ
मौसम आये जाए कोई
आंसू पीना सिख गयी हूँ
तुम बिन जीना सिख गयी हूँ
गम को पीना सिख गयी हूँ.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें