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अयोध्या धाम

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रविवार, 2 सितंबर 2018

विस्मय

मन विचलित था
राह भ्रमित थी
खोज रहा मेरा मन कुछ था
सोच की उलझन समझ पे भारी
दूरगामी परिणाम का डर था
सत्य कौन है, कौन अधर्मी
इस नाटक के पात्र सभी है
कौन बनेगा हीरो
किसको पात्र मिलेगा विलेन का
हर चरित्र की अपनी लै है
फिर मन में डर क्यों बैठा है
भला-बुरा हम सोच-सोच के
उलझन बड़ी बनाते है
जो भी पात्र हमें मिलता है
क्यों नहीं दिल से निभाते है
ऊपर बैठे निर्देशक ने
हम को जो निर्देश दिए 
हम ने दिल से उसे निभाया 
खुशियों को हमने अपनाया.

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