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रविवार, 30 सितंबर 2018

आपबीती

अंतर्मन में होड़ लगी है
जीवन पल-पल बीत रहा है
हर पल, हर क्षण जीत रहा है
पर पल-पल में टूट रहा है
जीवन क्रम से छुट रहा है
बोतल में शाम डुबोता हूँ
कुछ खोता हूँ कुछ पता हूँ
हैं कामयाब लहरे संग-संग 
फिर मैं क्यों गोते खाता हूँ
है चहल-पहल चहुँ ओर मेरे
फिर मैं क्यों नैन भिगोता हूँ
जीवन का है वरदान मिला
फिर मैं इस पर क्यों रोता हूँ
सब कुछ मुट्ठी में भरने की
चाहत ने भूख को मारा है
इस रंग-बिरंगी दुनिया में
काटों का पौध लगाया है
जो भी हमने दुनिया को दी
वापस हमने सब पाया है
फिर रोना क्या फिर गाना क्या
हैं संग-संग मौज मनाना क्या
कुछ सिख मिली
कुछ मीत मिले
जिसने जीवन को जित लिया
अब हम को भी अपनाना है
अब राह अलग बनाना है.

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