मैं अब जागने लगी हूँ
लफ्जों की मुझे अब जरूरत नहीं
चेहरों को जब से मैं पढ़ने लगी हूँ
परवाह नहीं किसी की
अब तो मैं अकेले ही
आगे बढ़ने लगी हूँ
मैं हूँ तेरा ही प्रतिबिम्ब
तुम हो कठोर चट्टान की भांति
तो कैसे मैं कह दूँ कि
मैं मोम बनने लगी हूँ
तुम हो अपने जिद्द में माहिर
तो मैं भी अब
नित् नए संकल्प गढ़ने लगी हूँ
मैं थी नींद में वर्षों से
अब तो जग के रोज चलने लगी हूँ
जीत सच्चाई की ही होती है
बादलों के भी उस पार
अब स्पस्ट दिखने लगा है
चाहे रास्ते में मुश्किलें कितनी आये
मैं भी अपना इरादा
मजबूत करने लगी हूँ
आज की बदलती तस्वीरों को देखकर
शायद मैं भी कुछ - कुछ बदलने लगी हूँ।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंthanks sir
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 21 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसर आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
हटाएंज़रूरी है स्थितियों के अनुसार स्वयं को बदलना.
जवाब देंहटाएंआपका आभार
हटाएंउम्मीद करती हूँ आपलोग इसी तरह हौसला बढ़ाते रहेंगे
साथ ही कभी कोई कमी लगे तो कृपया अपना सलाह भी जरू दे।