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रविवार, 7 जनवरी 2024

मंज़िल

मंज़िल-मंज़िल करते हैं हम 

मंज़िल का कोई भान नहीं है 

कोई उसका रंग नहीं है 

कोई उसका नाम नहीं 

नाँव लहर से टकरा कर 

दूर किनारे जा रूकती है 

फिर भी नाविक लेकर उसको 

पुनः लौट है जाता 

बार-बार गिरकर भी उठना 

ठोकर खा-खा कर भी चलना 

नए-नए आयाम को गढ़ना 

रोज़ नए अनुभव से मिलना 

रोज़ नयी मुश्किल से लड़ना 

यही है मंज़िल यही राह है 

दोनों संग-संग चलते रहते 

जीवन का बस एक मंत्र है 

हरदम आगे बढ़ते रहना। 

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर रचना
    हरदम आगे बढ़ते रहना....।
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ९ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर प्रेरणात्मक रचना

    जवाब देंहटाएं