कैसे-कैसे मै खुद को बदल रही हूँ
थाम कर हाथ मेरा साथ चल लो मेरे
आज हर कदम पर फिसल रही हूँ मै
कैसे कैसे मै खुद को बदल रही हूँ
तुम पर भरोसा था साथ देने का
राह में अपने कैसे-कैसे भटक रही हु मैं।
कैसे-कैसे मैं खुद को बदल रही हूँ
कहाँ पता था तुम ऐसे बदल जाओगे
थी बेफ़िक्र तुम्हारे साथ रहने से
अब ख़ौफ़ज़दा हूँ माहौल बदल जाने से।
कैसे-कैसे मैं खुद को बदल रही हूँ
ज़िन्दगी खिलती हुई धुप थी
अब मैं कबसे ढलती सांझ को निहार रही हूँ
सुबह और शाम में कम हो रहा है फासला।
कैसे-कैसे मैं खुद को बदल रही हूँ
पहले तो हवा की सरसराहट में भी संगीत था
अब तो संगीत भी मुँह चिढ़ाने लगा है
ढोलक की थाप से भी दम घुंटने लगा है
ज़िन्दगी हर दिन अपना रंग बदल रही है।
ज़िंदगी क्षर क्षण अपना रंग बदलती है...। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ५ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत धन्यवाद!
हटाएंजब कोई साथी बदलने को मजबूर करे तो इतना बदल जाना चाहिए कि उसके साथ की जरूरत न पड़े।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन
बहुत बहुत शुक्रिया ! ऐसे ही हमारा हौसला बढ़ाते रहियेगा।
हटाएंसमय के साथ उम्र ढलती है जीवन के अनुभवों से सबक लेते हुए हम अपनेबको अपने अनुसार ढाल लेते हैं, सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति...!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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