परन्तु कई बार लोग अपने अहम् में इतने अंधे हो जाते है कि उन्हें लगने लगता है वो जो भी करेंगे वही सत्य और धर्म बन जाएगा क्योंकि वो ताकतवर है उनके उनके पास धन की बहुलता है लेकिन शायद वो यह भूल जाते है कि जिस धन के मद में चूर होकर वो इस तरह का आचरण करने लगते है वह धन न तो सदा के लिए उनके पास रहने वाला है और न ही उससे अपने लिए कोई एक रिस्ता भी ऐसा खरीद पाए जो उनके दिल से जुड़ सके।
धन और अहम् के बल पर खरीदी या बनाया गया हर रिस्ता या वस्तु हमेशा उस इंसान को कस्ट ही पहुंचाती है। लेकिन फिर भी लोग धन के मद में उन सच्चाइयों को नहीं देख पाते है। ये सारी बाते उन्हें तब समझ आती है जब धन और धर्म दोनों उनका लूट चूका होता है।
पर उसके बाद इंसान लाख पछताए कोई फययेडा नहीं। अतः हमेशा अपने कर्तव्य को अपना धर्म समझ कर निभानेवाला बय्क्ति हि चैन सुकून की जिंदगी बिताता है हमारे समाज इसके हजारो उदाहरण है।
धर्म और कर्तव्य दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। हाँ सिर्फ इसके महत्व को समझने की जरूरत है। वास्तव में धर्म न तो किसी बाजार में बिकने की बस्तु है और न ही यह किसी को उधर में दी जा सकती है। धर्म और कर्तव्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें