क्या कहूं देखकर सोंचता रह गया
तुम हो कोई मूरत या कोई सपना हो
कह लूँ तुमको अपना या या तुम मेरा सपना हो
हो भोली -भाली कितनी
पूरी सच्चाई की मूरत हो
हर वक़्त तुम्हे देखा करता हूँ
कुछ शब्द नए रोज गढ़ता हूँ
मन में यह प्रण तुमसे करके मिलता हूँ
पूछूंगा तुम क्या सोंचती हो मेरी खातिर
पर सामने तुमको जब पाता हूँ
मैं मौन सदा रह जाता हूँ
अपने मन मंदिर में तुमको
बिठाकर स्वयं ही देखता रहता हूँ
तुम हो मेरे ह्रदय की मलिका
सपना हो या संच हो
तुम प्रेम हमारा हो
तुम मिलो या न मिलो
प्रेम सदा ही रहेगा
तुम्हे देखता हूँ हरछण
सदा देखता रहूँगा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें