हर रोज़ प्रकृति से दूर हो रहे
खतरे में अस्तित्व परा हैं
आज के मानव जाति का
वायु प्रदुषण चरम पे पहुंचा
जल धरती से दूर हो रहा
गर्मी अपने चरम पे पहुंची
ठण्ड ने बदला मिजाज़ अपना
वसंत आता हैं कब
और चला जाता हैं कब
हम सोचते रह जाते हैं
फाग के रंग भी फीके पड़ गए
रंग मिलावट के भेंट चढ़ गए
मिठास कड़वाहट में बदला
दिल से दिल की दूरी बढ़ गई
कोई किसी से गले न मिलता
गिले शिकवे दूर न करते
छोटी-छोटी बातों में भी
सबकी इगो आड़े आती
गाडी की आवाज ने हमको
दर्द के एहसास से दूर कर दिया
ज़िन्दगी की कीमत
शानो-शौकत के आगे फीकी पड़ गई
अपनों के प्यार की जगह
पैसो ने ले लिया
शहरों की तस्वीर बदली
पर हमने अपनी सूरत
कब बदल के रख दी
जिसका हमें पता ही नहीं चला
काश फिर से वही दिन और
वही रात आ जाती
हममें अपनों के लिए जीने का
फिर से हुनर आ जाता
प्रक्रति मेहरबान फिर से
हर ओर हो जाती!!
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