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मंगलवार, 16 मई 2017

सृष्टि

कोयला होत न उजला
सौ मन साबुन खाए
हैं मन निर्मल होए
जब संत संगती पाए
न चाहे कोई संत संगती
सब को क्लब हैं भाए.

कोयला होत न उजला
सौ मन साबुन खाए
पूरे जग को रौशनी
दीपक देकर जाए
खुद के तले अँधेरा हैं
बरसो बीत हैं जाए.

कोयला होत न उजला
सौ मन साबुन खाए
राजनीति के गलियारों में
सब कुछ काला होए
करत प्रयास सफल जब होए
सब संकट कट जाए.

कोयला होत न उजला
सौ मन साबुन खाए
पूरी व्यवस्था ध्वस्त हुई हैं
हर मन काला होए
प्यासा पैसे की खातिर हैं
मन कठोर होए जाए.

कोयला होत न उजला
सौ मन साबुन खाये
सूर्य चन्द्र अब सोच रहे हैं
हम ही क्यों पछताए
जो होता हो जाए सृष्टि में
सोया हैं तू सोया रहियो

मैं जागूँ हर बार.

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