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शुक्रवार, 12 मई 2017

डर

थी चाँदनी रात वो
था मुझे किसी का इंतज़ार
चाँदनी की छंटा
घर के अंधेरे में भी
एक रौशनी बिखेर रही थी
मैं कुछ कड़ीया जोड़ने में लगी थी
रात बढ़ने लगी थी
और मैं बेचैन सी
इधर-उधर टहलने लगी थी
रात की ख़ामोशी मुझे
इस कदर डसने लगी थी
थी चाँदनी रात पर
मन में अँधेरा छाया था
आँखों के सामने
कुक गमगीन साया था
बाहर चाँदनी रात थी ‘
पर अंदर अँधेरा घना था
कुछ चाहत की कसक थी
तो कुछ प्यार का डर
थी चाँदनी रात पर
मन काँप रहा था डर से
क्या करे ऐसी चांदनी रात का
जिसको डर-डर कर गुज़ारा हमने
इससे तो अच्छा होता
रात होती ही नहीं
दिन ढलता ही नहीं
फिर हमे शायद डरने की

ज़रुरत ही नहीं होती!

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