कॉलेज के वो दिन आज भी मन को गुद-गूदा देते है जब याद करती हूं तो ऐसा लगता है वो कितने सुनहरे दिन थे. काश ज़िन्दगी वैसी होती. न
कोई चिंता न कोई फ़िक्र बस पढ़ाई और अपने दोस्तों के सिवा दुनिया में और कुछ भी होता
ऐसा कभी सोचा ही नही, लेकिन अंतिम वर्ष आते-आते हमारे जीवन में परिवर्तन आने
लगा. सब अपने आगे के जीवन में क्या करना है इसकी
प्लानिंग करने में मशगूल हो गए. लेकिन मेरी सबसे प्यारी सहेली रिया अपनी अलग ही दुनिया में
मस्त थी. रिया हमेशा क्लास में अवल आती थी. लेकिन जब भी मैं उससे पूछती कि रिया
तुम आगे क्या बनना चाहोगी तो उसका सीधा सा जवाब होता. कुछ नही
मैं तो बस अपनी ज़िन्दगी को अपने अंदाज़ में जीऊँगी, मुझे बंधकर जीना पसंद नही. मैं फिर भी उसे अक्सर
मौका देखकर ऐसे सवाल पूछ ही लेती थी क्योंकि रिया के जवाब से मेरा मन संतुष्ट नही
होता था और मेरी आदत थी कि मैं जब तक संतुष्ट नही हो जाऊं कि सामने वाले का जवाब सही है तब तक
मैं दम नही लेती. लेकिन रिया भी आखिर कब तक मुझे झेलती, एक दिन तंग आकर उसने झल्लाते हुए पूछा कि तुम इतनी परेशान क्यों हो मैं
अपनी ज़िन्दगी का कुछ भी करूँ. तुम्हे उदास होने की ज़रूरत नही है.
मेरे पास वो सब कुछ है जो मुझे चाहिए. मुझे और कुछ नही चाहिए और तुम्हे आज से मेरी कसम है कि आगे
से मुझसे ऐसा सवाल नही करोगी.
सहेली की कसम थी सो मुझे तो माननी ही थी. न
चाहते हुए भी मैंने उस दिन से उस सवाल पर पूर्णविराम लगा दिया. कॉलेज खत्म होने के
बाद मैं भी आगे की पढाई के लिए दुसरे शहर चली गई, अब हमारी मुलाकात बस पत्र और फ़ोन तक
सीमित होकर रह गई थी. रिया अपनी ज़िन्दगी में, मैं अपनी
ज़िन्दगी के पन्नो को जोड़ने में लगी थी इसी बीच अचानक रिया का
एक दिन फ़ोन आया. फ़ोन उठाते ही वह फफक-फफक कर रोने लगी. मैं समझ नही पा रही
थी कि ऐसा क्या हुआ कि रिया जैसी जिंदादिल लड़की इस कदर फूट-फूट कर रो रही है. मैंने बड़ी हिम्मत करके उससे पुछा, “रिया रो क्यों रही हो? मुझे बताओगी तभी तो मैं कुछ कर
पाऊँगी”, रिया कि आवाज़ सिसकियो के बीच सिर्फ इतना बोल पाई “तुम मेरे पास आ जाओ
प्लीज” इतना बोलते बोलते फिर से वह रोने लगी. मैं समझ गई कोई बड़ी बात हुई है अतः
बगैर आगे कोई सवाल किए मैंने फ़ोन रखते हुई उसे आश्वाशन दिया कि मैं आ रही हूं.
लेकिन जब मैं रिया
के घर पहूंची
तो वहां का नजारा देखकर जैसे थोड़ी देर के लिए पत्थर कि बूत सी बन गई थी. फिर मैंने
अपने आपको संभाला और जोर से रिया को अपने गले से लगाते हुए सांत्वना देने लगी, “चुप हो जाओ सब ठीक हो जाएगा”.
लेकिन वह तो बस रोती ही जा रही थी.
“अब
कुछ नही ठीक होगा प्रिया”
रिया
को मैं समझती रही काफी देर समझाने के बाद रिया चुप हो गई और गुमसुम होकर एक ओर बैठ
गई. फिर थोड़ी देर बाद रिया मुझे अपने कमरे में ले गई और फिर उसके यही
सवाल थे कि “प्रिया मैं यह सब कैसे संभालूंगी, मुझे तो कुछ पता नही बाहरी
दुनिया में इतनी मुश्किलें है मैं उसका सामना कैसे करुँगी. परिवार में सब लोग बाते
कर रहे है कि मुझे अपने आप से दूर ही रखे क्योंकि मैं अपशगुनी हूं. मेरे कदम जब से इस परिवार में पड़े
है कुछ न कुछ गलत हो ही हो रहा है.
प्रवीन ने तो मुझे कभी भी फील नही
होने दिया कि मैं उनके लिए सही नही हूं. उन्होंने तो मुझे हमेशा अपने पलकों
पर बिठा कर रखा लेकिन अब जब प्रवीन नही है मैं कैसे सारी समस्या का समाधान
ढूंढूंगी.
मेरे मायके में भी माहौल कुछ अलग सा है मेरे भाई अब अलग अलग
रहते है, मम्मी-पापा के गुज़र जाने के बाद उनका नजरिया हमारे प्रति कुछ अच्छा नही है”. इस गमगीन माहौल में भी रिया के लिए
कोई सहारा बनकर सामने आई तो वो थी उसकी ननद, शीतल, जिसने जिंदगी के उतार चढ़ाव को बड़े
नजदीक से देखा हैं. उसने पुरे परिवार के सामने रिया को सपोर्ट करते हुए कहा, “यह
तो निधि की विडम्बना हैं इसमें रिया का क्या दोष. रिया के साथ कोई हो या ना हो मैं उसके साथ हूँ और मैं उसे
अपनी आगे की ज़िन्दगी और बच्चों के लिए सही व्यवस्था कैसे करनी हैं
उसमें हमेशा साथ दूंगी. रिया और मैं मन ही मन बड़े खुश थे कि आज इस अग्नि परीक्षा
की घड़ी में कोई तो हैं जो रिया के साथ हैं और दो दिन बाद रिया को समझा-बुझा कर मैं
अपने घर आ गई. साथ ही मैंने रिया से कहा कि, “कभी भी तुम्हें मेरी ज़रूरत हो तो
ज़रूर याद करना”.
अगले छह महीने बाद
एक दिन रिया का फ़ोन आया. फ़ोन उठाते ही उसने सामने से कहा, “कभी तो मुझे याद कर
लिया करो. एक तुम्ही तो हो जिसे याद कर मेरा मन मुस्कुराने को करता हैं और जीवन
में आगे बढ़ने और कुछ करने की प्रेरणा मिलती हैं”.
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