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शुक्रवार, 5 मई 2017

सांझ का पहर

था सांझ का पहर
मैं टेहेल रही थी इधर उधर
चिड़ियों के घोसले में मची थी कुछ हलचल
आकाश में बिजली कड़क रही थी
तूफान आने को बेताब था
मौसम हर पल बदल रहा था.

था सांझ का पहर
हर ओर था चहल पहल
चिड़ियों की झुंड अपने
घोसले की ओर लौट चली थी
खेतो से मजदुर भी घर की ओर 
जाने के लिए तैयार थे
बागों में शांति छाने लगी थी.

था सांझ का पहर
मन में मची थी उथल-पुथल
जाऊ अपने मंजिल की ओर
या घर को लौट चलू
मैं तो मनाने चली थी उसे
पर अपना मन ही इतना बोझिल था
तो क्या मैं मना पाऊँगी
उसे अपने दिल की बात
अपने शब्दों में बता पाऊँगी.

था सांझ का पहर
मन में मची थी उथल-पुथल
कोई रुक कर क्यों है जाता
जब हमे मनाना ही नही आता.
कैसे मैं दिल की बात उन तक पहुंचाऊं
खुद पंछी बन जाऊ
या उनको पंछी बनकर
अपनी मुट्ठी में कैद कर लूँ
ताकि हर सांझ के पहर में
हम दोनों चिड़ियों सा चहचहाऐ

कलरव करे ओर जी भर के गाएं.

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