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सपने

आँखों में सपने थे  ढेरो अरमान थे दिल में  कुछ अलग करने की  हमने भी ठानी थी  सपने बड़े बड़े थे  पर साधन बहुत सीमित थे  मंज़िल आँखों के सामने थी ...

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

प्रकृति

हर ओर उदासी छाई
हर मन में भय का बना बवंडर
डर-डर कर जीने की आदत
अब अपनी दिनचर्या!

हर ओर उदासी छाई
दुःख की घड़ी उदासी में
धैर्य हमारा छूटा हमसे
गुस्से में तब्दील हुई जब
अपनों पर ही फूटा!

हर ओर उदासी छाई
धर्म सभा की आदत छूटी
डिस्को बना ठिकाना
चर्चा-परिचर्चा से ईश्वर
कब के हो गए ग़ायब!

हर ओर उदासी छाई
सबकी अपनी चाह अलग हैं
रहा न कोई नाता प्रकृति से
धर्म की बातें जन मानस को
करने लगी परेशान!

हर ओर उदासी छाई
कलयुग में अपराध का आलम
आसमान छूने को है
मंदिर मस्जिद और गुरूद्वारे
बने अखाड़े राजनीति के

हर ओर उदासी छाई!!

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