रिश्वत
एक ऐसा शब्द हैं जिसे सुनकर कुछ लोगों के चेहरे खिल जाते हैं. पर कुछ लोगों की
हस्ती इन्ही वजह से मिट भी जाती हैं. इसी पर आधारित ये कथा एक ऐसे अधिकारी की हैं, जिसने कितनी ज़िन्दगी को बर्बाद करने का श्रेय लेकर
अपने आपको गौरवान्वित महसूस करता हैं.
गोपाल
दास, एक ऐसे चरित्र का नाम हैं
जो सचिवालय में बाबू के पद पर कार्यरत हैं. उनके पाँचों ऊँगली मानों घी में हो.
उनकी पूरी फैमिली बड़ी खुश रहती हैं इसलिए नहीं कि उनके घर में सब सरकारी नौकरी में
हैं बल्कि इसलिए कि उनका बेटा बड़ा बाबू बन गया हैं और अब उनकी चांदी ही चांदी हैं.
गोपाल दास जी भी अपनी तारीफ़ सुनकर मंद-मंद मुस्काते रहते हैं. मन ही मन वो सोचते
हैं, “वाह री माया तेरी भी क्या बात हैं कुछ दिन तक तो मुझे
घर में कोई पूछता भी नहीं था क्योंकि मेरी नौकरी सबसे छोटी थी”. मैं महज़ क्लर्क के पोस्ट तक पहुंच पाया था पर माया की कैसी महिमा हैं कि
रातों-रात किसी की इज्ज़त में चार चाँद लग जाता हैं. चाहे वह माया रिश्वत में ही
क्यों न मिली हो.
फिर क्या
था गोपाल दास जी भी रूपए बनाने के नीत-नए उपाए ढूँढने में लग जाते हैं. हर रोज़
उनके पास बड़ी संख्या में गरीब और किसान अपने पेपर को आगे बढाने की बात करने आते और
गोपाल दास जी उनसे बेधड़क अपनी बक्शीस की बात समझा देते हैं. यह सिलसिला कई वर्षों
तक चलता रहता सचिवालय में सबको पता होता हैं जो काम कोई नहीं निकाल पाता
अधिकारियों से उसे गोपाल दास जी चुटकियों में रिश्वत और अपने मिलनसार व्यवहार की
वजह से हल कर देते थे.
लेकिन
बदलाव तो प्रकृति का नियम हैं. रात आई हैं तो आगे दिन का आना तय हैं और इसी क्रम
में निजाम बदलते ही सचिवालय की आवो हवा भी बदल जाती हैं. हर तरफ मुस्तैदी, ईमानदारी, साफ़-सफाई की बात होने
लगती हैं लेकिन हर समय खिले-खिले रहने वाले हमारे गोपाल दास जी का चेहरा अब हमेशा
लटका रहता हैं. कपड़े और जूतों में भी अब वो चमक नहीं रही. दिन भर पसीना पोछते रहते
हैं. एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया, “क्या बात हैं गोपाल
दास जी? बड़े परेशान दीखते हो, कोई ख़ास
बात?”. बेचारेआत्मीयता पा फफक कर रो पड़े, “क्या बताऊँ तुम्हे मोहिनी तुम बड़ी सुखी हो तुम्हारे बच्चे, तुम्हारा पति, तुम्हारी कितनी परवाह करते हैं. दिन
में कई-कई बार तुम्हारा हाल-चाल जानने के लिए फ़ोन करते हैं, देर
हो जाए तो पति तुम्हे लेने दफ्तर तक पहुंच जाते हैं. जबकि एक मैं हूं अगर दफ्तर से
घर न पहुंचू तब भी नहीं कोई पूछता कि आज कहां रह गए. यहाँ तक की पत्नी भी सीधे
मुंह बात नहीं करती”. मैंने पूछा, “क्यों
सब तो आपको बड़ा आदर करते थे. आपका बेटा आपको रोज़ दफ्तर छोड़ जाता था?”
“तब मेरे पौकेट में पैसा
होता था अब मैं खाली हाथ हूं. सैलरी मिलती हैं तो वो पत्नी उसी दिन पॉकेट से निकाल
लेती हैं. पूरे महीने मैं पैदल ही घर से दफ्तर पहुंचता हूं”.
“गोपाल दास जी बुड़ा
मत मानना मैंने आपको पहले भी समझाया था गरीबो की आह मत लो पर आपने नहीं मानी
आज अपने बच्चे बेगानों की तरह पेश आ रहे हैं. क्या फाएदा हुआ उन पैसों का? मैं तो आज भी आपसे निवेदन करती हूं कि आज से ही अपने जीवन का लक्ष्य बना
लो कि रिश्वत के खिलाफ़ आज के युवा पीढ़ी को आप जागरूक करेंगे. ऐसा करके देखिये आपको
कितना सुकून मिलेगा.”
मैं काफी
देर तक बैठी सोचती रही सच हमारे बुजुर्गों ने सही ही कहा हैं कि बुराई का अंत बुरा
ही होता हैं.
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